संविधान में बदलाव , आरक्षण, जाति गणना और किसान आंदोलन के मुद्दे भाजपा की ऐसी दुखती रग बन गए हैं कि वे उसे कहां और कैसे नुकसान पहुंचाएंगे, इसका अंदाजा भाजपा भी नहीं लगा पा रही है। इस बीच कंगना ने किसान आंदोलन के खिलाफ बयान देकर हरियाणा चुनाव में भाजपा के लिए नयी मुसीबत खड़ी कर दी है।
कुछ समय पहले तक कांग्रेस मणिशंकर अय्यर, सैम पित्रोदा जैसे बड़बोले नेताओं से परेशान थी। लेकिन अब लगता है यह काम भाजपा में भी कुछ लोगों ने अपने हाथ में ले लिया है। भाजपा की बेबसी यह है कि वह इन मुद्दों पर लगातार नुकसान झेल रही है, लेकिन इसका कोई ठोस जवाब उसके पास नहीं है। ऐसे नेताओं के खिलाफ वह कोई प्रभावी कार्रवाई भी नहीं कर पाती। कारण या तो असहायता है या फिर खुद ऐसे लोगों को पार्टी की शह है।
किसान आंदोलन कितना जायज, तार्किक और राजनीति से प्रेरित था, इसके पीछे किन ताकतों का हाथ था, इस पर बहस हो सकती है, लेकिन उसे अलगाववादियों और विदेशी हाथों से संचालित होने के आरोप लगाना और वो भी इस समय, राजनीतिक बुद्धिमानी कतई नहीं है। कंगना ने किसान आंदोलन की जगह पर लाशें लटकने और बलात्कार तक होने की बात कहते हुए कहा कि यदि मोदी सरकार ने कड़े कदम नहीं उठाए होते तो किसानों के विरोध प्रदर्शन से भारत में बांग्लादेश जैसी स्थिति पैदा हो सकती थी। इस बयान ने उन भाजपाइयों को भी चौंका दिया जो, लोकसभा चुनाव में हुई चूकों की राजनीतिक दुरूस्ती में लगे हुए हैं। भाजपा ने तुरंत खंडन जारी किया कि कंगना का बयान पार्टी की अधिकृत राय नहीं है। लेकिन विपक्ष ने इस बयान को लेकर भाजपा पर जबरदस्त प्रहार शुरू कर दिए हैं।
राहुल गांधी ने कहा कि कंगना का बयान भाजपा की किसान विरोधी नीति का सबूत है। किसानों से किए वादे पूरा करने में नाकाम रहा तंत्र किसानों के प्रति दुष्प्रचार में लगा हुआ है। राहुल ने कहा कि भाजपा कंगना के बयान से असहमत है तो उन्हें पार्टी से बाहर करे। उन्होंने यह भी कहा कि तीन विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ 378 दिन चले मैराथन संघर्ष में 700 किसानों ने बलिदान दिया। उन्हें बलात्कारी व विदेशी ताकतों का नुमाइंदा कहना भाजपा की किसान विरोधी नीति व नीयत का परिचायक है और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के किसानों का अपमान है। इंडिया गठबंधन किसानों को एमएसपी की कानूनी गारंटी दिलवा कर रहेगा। कुछ ऐसे ही बयान आम आदमी पार्टी, सपा की तरफ से भी आए। क्योंकि सबको पता है कि किसानों का मुद्दा हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए कितना संवेदनशील है। इस मामले में कोई भी प्रतिकूल प्रतिक्रिया भाजपा की जमावट को जड़ से हिला सकती है।
दरअसल, ऐसे आत्मघाती बयान या तो अतिआत्मविश्वास की कोख से जन्म लेते हैं या फिर विवेकहीनता का परिणाम होते हैं। लोकसभा चुनाव के पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ‘अबकी बार चार सौ पार का नारा’ भी इसी मुगालते का नतीजा था। तीन विधानसभा चुनावों में भाजपा की बंपर जीत और राम मंदिर में भगवान राम की भव्य प्रतिष्ठापना ने ऐसी सियासी धुंध पैदा की कि सत्ताधीशों को सतह के नीचे की खदबदाहट सुनाई देना ही बंद हो गई।
‘चार सौ पार’ इसलिए चाहिए क्योंकि संविधान बदलना है, यह नरेटिव ऐसा फैला किभाजपा बहुमत के आंकड़े से भी 32 सीट दूर रह गई। इसकी शुरुआत भी किसी विपक्षी पार्टी ने नहीं बल्कि भाजपा सांसदों अनंत हेगड़े, ज्योति मिर्धा, लल्लू सिंह, अरुण गोविल आदि ने की थी। डैमेज कंट्रोल के तौर पर भाजपा ने कुछ सांसदों के टिकट भी काटे, लेकिन पार्टी की मंशा पर उठी उंगलियों को वापस मोड़ देने का कोई कारगर इलाज उसके पास नहीं था। जब तक वो इन सवालों का माकूल राजनीतिक जवाब देती, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
ऐसे में राहुल को ‘पप्पू’ अथवा ‘अपरिपक्व राजनीतिज्ञ’ साबित करने के पुराने फार्मूले काम नहीं आ रहे हैं। बीते दस सालों में यह शायद पहली बार है, जब देश तो क्या विश्व की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा एजेंडा सेट करने के बजाए विपक्षी हमलों से अपना बचाव करने में ही पसीने-पसीने हो गयी है।


