ज्ञानेंद्र मिश्र/स्तंभकार/मुंबई वार्ता

■ बांग्लादेश में बदलता राजनीतिक परिदृश्य
बांग्लादेश में बदलते राजनीतिक परिदृश्य के संकेत स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। कार्यवाहक सरकार, जिसका नेतृत्व मोहम्मद यूनुस कर रहे हैं, और बांग्लादेशी सेना के बीच मतभेद हाल के दिनों में उभरकर सामने आए हैं।
■ रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए सुरक्षित गलियारा
मोहम्मद यूनुस, अमेरिका के दबाव में, बांग्लादेश से म्यांमार के रखाइन प्रांत तक रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए एक सुरक्षित गलियारा स्थापित करने की योजना पर विचार कर रहे हैं। यह प्रस्ताव बांग्लादेश के हितों के अनुरूप हो या न हो, लेकिन रोहिंग्या समुदाय के लिए यह निश्चित रूप से लाभकारी नहीं है। म्यांमार के रखाइन प्रांत में हिंसा का माहौल अभी भी बना हुआ है, और रोहिंग्या समुदाय वहां दबाव और असुरक्षा का सामना कर रहा है। उनकी सुरक्षा की कोई ठोस गारंटी नहीं है।
■ अमेरिका की रणनीति और बांग्लादेशी सेना की चिंताएं
अमेरिका का तर्क है कि इस सुरक्षित गलियारे के माध्यम से बांग्लादेश में रह रहे लगभग 13 लाख रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस म्यांमार भेजा जा सकेगा, साथ ही मानवीय सहायता भी पहुंचाई जा सकेगी। लेकिन सवाल यह उठता है कि जब रोहिंग्या शरणार्थी स्वयं म्यांमार लौटने को तैयार नहीं हैं, तो इस गलियारे का क्या औचित्य है? बांग्लादेशी सेना भी इस प्रश्न को उठा रही है और उसे आशंका है कि यह गलियारा बांग्लादेश को म्यांमार के आंतरिक मामलों में अनावश्यक रूप से उलझाने का माध्यम बन सकता है। इससे म्यांमार से और अधिक रोहिंग्या शरणार्थी बांग्लादेश में प्रवेश कर सकते हैं, जिससे बांग्लादेश को आर्थिक और आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
■ अमेरिका की गहरी रणनीति
इसके पीछे एक गहरी रणनीति भी काम कर रही है, जिसे समझा जा सकता है, लेकिन खुलकर चर्चा नहीं हो रही। यह सुरक्षित गलियारा अमेरिका की एक रणनीतिक योजना का हिस्सा प्रतीत होता है, जिसमें मोहम्मद यूनुस को एक मोहरे के रूप में उपयोग किया जा रहा है। अमेरिका, म्यांमार में चीन के बढ़ते प्रभाव से चिंतित है और इस गलियारे के जरिए वह मानवता और सहायता के नाम पर म्यांमार में अपनी पैठ बढ़ाना चाहता है। इसका उद्देश्य चीन की म्यांमार में बढ़ती रणनीतिक प्रगति को रोकना है।
■ चीन-पाकिस्तान-अफगानिस्तान का उभरता त्रिपक्षीय गठजोड़
एक अन्य महत्वपूर्ण घटनाक्रम में, चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद एक संयुक्त बयान जारी किया गया है। इस बयान में कहा गया है कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपैक) परियोजना को अफगानिस्तान तक विस्तारित किया जाएगा, जिससे अफगानिस्तान को भी इस परियोजना से आर्थिक लाभ प्राप्त हो सकेगा। यद्यपि इसे यह दिखाया जा रहा है कि अफगानिस्तान ने स्वेच्छा से इस परियोजना में भागीदारी का निर्णय लिया है, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह कदम चीन की रणनीति का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य अफगानिस्तान में भारत के प्रभाव को कम करना और अपनी स्थिति को मजबूत करना है।
■ भारत का ऐतिहासिक योगदान और वर्तमान चिंताएं
यहां यह याद रखना आवश्यक है कि जब अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार थी, तब भारत ने वहां व्यापक निवेश किया था। अफगान संसद भवन का निर्माण भी भारत द्वारा किया गया है, और भारत के कई आर्थिक हित आज भी अफगानिस्तान से जुड़े हुए हैं। चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान की यह त्रिपक्षीय साझेदारी भारत के लिए चिंता का विषय बन गई है। भारत सरकार ने इस त्रिपक्षीय बैठक की जानकारी होने की बात स्वीकार की है, लेकिन इस पर विस्तृत टिप्पणी करने से बच रही है।
■ भारत-अफगानिस्तान संबंध और चीन का प्रभाव
हालांकि, ऐतिहासिक रूप से भारत और अफगानिस्तान के संबंध मधुर रहे हैं, और वर्तमान तालिबान सरकार के साथ भी भारत के संबंध सतही तौर पर सकारात्मक ही दिखाई देते हैं। फिर भी, अफगानिस्तान इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती शक्ति को नजरअंदाज नहीं कर सकता। इसलिए, वह भारत और चीन के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास कर रहा है।*सीपैक का विस्तार और भारत के लिए खतरा*यह स्पष्ट है कि सीपैक परियोजना में अफगानिस्तान की भागीदारी भारत के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है। यदि चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान की यह परियोजना सफल होती है, तो भारत उत्तर-पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान और अफगानिस्तान के साथ-साथ चीन के समर्थन से घिर सकता है। इसके अलावा, बांग्लादेश और म्यांमार के रखाइन प्रांत में रोहिंग्या शरणार्थियों का मुद्दा भी भारत के लिए नकारात्मक परिस्थितियां पैदा कर रहा है। म्यांमार में चीन का प्रभाव पहले से ही मजबूत है, और वहां के सैन्य शासन में उसका दबदबा है। दूसरी ओर, अमेरिका ने बांग्लादेश की यूनुस सरकार को सुरक्षित गलियारा बनाने के लिए प्रेरित किया है, जिसे बांग्लादेशी सेना, जो भारत के प्रति अपेक्षाकृत नरम रुख रखती है, पूरी तरह समर्थन नहीं दे रही।
■ क्षेत्रीय स्थिरता और राष्ट्रीय हित
मेरा तात्पर्य यह है कि यदि बड़े देश अपनी सीमाओं के भीतर शांतिपूर्ण ढंग से रहने का प्रयास करें, तो क्षेत्रीय स्थिरता बनी रहेगी। लेकिन राष्ट्रीय हितों और रणनीतिक लाभ के लिए भारत और इसके पड़ोसी देशों में हस्तक्षेप हो रहा है। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत ने युद्धविराम स्वीकार कर कई महत्वपूर्ण अवसर गंवा दिए, जिसके परिणामस्वरूप भारत को भविष्य में असुरक्षित और अस्थिर स्थिति का सामना करना पड़ सकता है।
■ ऑपरेशन सिंदूर की सफलता का पैमाना
ऑपरेशन सिंदूर की सफलता का एकमात्र मापदंड यह हो सकता था कि इस अभियान के दौरान भारत ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) पर कब्जा कर लिया होता और नए क्षेत्रों, जैसे सिंध और बलूचिस्तान, का उदय हुआ होता। यदि इन घटनाक्रमों को समग्र दृष्टिकोण से देखा जाए, तो ऑपरेशन सिंदूर अल्पकालिक लक्ष्यों के लिए सफल रहा, लेकिन दीर्घकालिक और अंतिम लक्ष्यों की दृष्टि से यह पूर्णतः असफल रहा।
■ खो दिए रणनीतिक अवसर
पीओके पर कब्जा और सिंध-बलूचिस्तान जैसे क्षेत्रों का उदय चीन की सीपैक परियोजना को जड़ से समाप्त कर सकता था। वर्तमान में, जब चीन की आर्थिक स्थिति निर्यात और अन्य क्षेत्रों में अस्थिर है, ऐसा कदम चीन के लिए बड़ा झटका होता। इससे भारत को सीपैक से उत्पन्न होने वाला दीर्घकालिक खतरा समाप्त हो जाता, पाकिस्तान कमजोर पड़ता, चीन की अफगानिस्तान तक पहुंच सीमित रहती, और बांग्लादेश की स्थिति भी नियंत्रित रहती। इससे भारत अपनी सीमाओं की चिंता किए बिना राष्ट्रीय विकास पर ध्यान केंद्रित कर सकता था।
■ युद्धविराम का रहस्य
लेकिन यह विचारणीय है कि भारत सरकार ने ऑपरेशन सिंदूर को पूर्ण किए बिना युद्धविराम क्यों स्वीकार किया? खासकर तब, जब यह दावा किया जा रहा है कि पाकिस्तान घुटनों पर था और भारत को कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ था। क्या वास्तव में अमेरिका के दबाव में युद्धविराम हुआ?
■ निष्कर्ष
दीर्घकालिक परिणाम*यदि ऐसा है, तो यह अत्यंत चिंताजनक स्थिति है। अमेरिका के साथ व्यापारिक बाधाएं अस्थायी होतीं, लेकिन सीपैक परियोजना को रोककर भारत अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और हितों को स्थायी रूप से सुरक्षित कर सकता था। यदि सरकार इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाती, तो यह स्थिति फिर से दोहराई जा सकती है कि “लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई”।