मुंबई वार्ता/संजय जोशी

श्री गुजराती जैन संघ, गांधीनगर में श्रमण संघीय उपप्रवर्तकश्री पंकजमुनिजी मसा., दक्षिण सूर्य ओजस्वी प्रवचनकार डॉ. श्री वरुण मुनिजी मसा., मधुर वक्ता कर्मयोगी श्रीरुपेशमुनिजी मसा. आदि ठाणा-3 के पावन सानिध्य में 2025 के गतिमान चातुर्मास के दूसरे दिन अपने प्रवचन में फरमाया कि तीन शब्द हैं भक्त, भक्ति और भगवान। जो भक्ति करे, उसका नाम भक्त है। भक्ति गुरु और भगवान की हो सकती है।


प्रभु के प्रति प्रेम, समर्पण, स्तुति, श्रद्धा, समर्पण, जप, पूजा, आराधना, अरदास, नमाज, प्रार्थना आदि भक्ति के अनेकानेक रूप हो सकते हैं। डॉ वरुणमुनिजी ने कहा कि भक्त को भगवान से मिलाने का सेतू या ब्रिज या सोपान या उपाय आदि को भक्ति कहते हैं। भक्ति की परम विशुद्ध अवस्था का नाम ही भगवान है। प्रसंगवश उन्होंने बताया कि आचार्य मानुतुंग द्वारा रचित भक्तामर स्तोत्र में भक्त, भक्ति और भगवान इन तीनों का समावेश हो जाता है।
इस स्तोत्र में आचार्य मानुतुंग भक्त हैं, उनके द्वारा रचित 48 गाथाएं भक्ति का स्वरूप है, तो इसमें तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की स्तुति की गई है। इसके प्रथम श्लोक के प्रथम अक्षर भक्तामर से ही इसका नामकरण भक्तामर स्तोत्र रखा गया है। हजारों-लाखों श्रावक, श्राविका, साधु, साध्वी प्रतिदिन प्रात:काल इसका पठन करते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि भक्ति करने के पीछे हमारी भावना रहती हैं कि इसके बाद नरक आदि अधोगति में नहीं जाना पड़ेगा, जहां भयंकर गर्मी, सर्दी, भूख, प्यास आदि की वेदना है। किंतु प्रभु महावीर की अहिंसा कहती है कि चींटी पर भी पांव नहीं रखना क्योंकि एक चींटी को मारना भी स्वयं को मारने जैसा है।
संतश्रीजी ने कहा कि जैन दर्शन आत्मावत् सर्वभूतेषु अर्थात सभी को अपनी आत्मा के समान समझता है। जिसमें डर नहीं, लोभ नहीं, वही सच्ची भक्ति कर सकता है।प्रवचन के पश्चात सभा का संचालन संघ के अध्यक्ष राजेश भाई मेहता ने किया।


