धर्म की आवाज़ या शोर का आतंक ?

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● बूढ़े ,बच्चों और बीमार पर तरस खाओ —धर्म के ठेकेदारों?

मुंबई वार्ता/ भरत कुमार सोलंकी

कबीर ने बहुत पहले ही कह दिया था:”काकड़ पत्थर जोड़ के मस्जिद लई बनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय?” आज कबीर होते, तो पूछते — “क्या स्पीकर से तेज़ बोलोगे तो भगवान पहले सुनेंगे?”

ध्यान से देखिए—हर गली-मोहल्ले में माइक बज रहा हैं।कोई कथा कर रहा हैं, कोई जागरण, कोई कीर्तन, कोई अज़ान, कोई भजन संध्या, कोई जुलूस।भगवान बेचारे शांति से ऊपर बैठे सोच रहे होंगे, “क्या मैं कॉल ड्रॉप कर दूँ?”

बूढ़े चैन से सो नहीं सकते, बच्चे किताबें खोलते हैं और शोर अंदर तक घुस आता है।बीमारों को लगता हैं जैसे अस्पताल की जगह डीजे पार्टी में आ गए हो।पर धर्म के ठेकेदार कहते हैं— “ये आस्था है!”आस्था में शांति होनी चाहिए, ना कि शोर।पर अब तो धर्म का मतलब ही हो गया हैं—”लाउडस्पीकर जितना बड़ा, उतना बड़ा भक्त!”

कभी सोचिए— अगर भगवान वाकई लाउडस्पीकर से ही सुनते तो जंगलों में तपस्या करने वाले ऋषियों को तो प्रमोशन ही नहीं मिलता।सिर्फ एक सवाल छोड़ रहा हूँ:अगर तुम्हारी प्रार्थना दूसरों की नींद, पढ़ाई और सुकून चुराकर होती है…तो भगवान के यहां वो प्रार्थना होगी या कम्प्लेन ?”

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