ज्ञानेंद्र मिश्र/स्तंभकार/मुंबई

हाल ही में हुए इजरायल-ईरान युद्ध का परिणाम यह रहा कि ईरान को कई दिशाओं से और कई क्षेत्रों में अपूरणीय क्षति पहुंची है। ईरान को महीनों लग जाएंगे अभी तो केवल अपने नुकसान का विश्लेषण करने में- फिर बात की बात है कि पुनर्निर्माण में कितना वक्त लगेगा।
■ रणनीतिक क्षति
जहां तक रणनीतिक क्षति की बात है, तो वह निश्चित तौर पर अपूरणीय है। विश्लेषणकों का मानना है कि ईरान को अपने सामान्य स्थिति में आने में तकरीबन एक दशक का वक्त लग जाएगा। ईरान की परमाणु कार्यक्रम को भयंकर नुकसान हुआ है और अब उसके पुनर्निर्माण की बात तो छोड़िए इस दिशा में विचार करने के लिए भी नेतृत्व को सौ बार सोचना पड़ेगा।
■ सैन्य क्षति
जहां तक सैन्य क्षति की बात है, तो ईरानी सेना व सशस्त्र बलों के हर अंग के वरिष्ठतम अधिकारी मारे गए हैं। सेना के नेतृत्व का मारा जाना जहां सेना के मनोबल को तोड़ देता है, वहीं सेवा की इंटेलिजेंस पर प्रश्न चिन्ह खड़े करता है। इस तरह वरिष्ठतम सेना के अधिकारियों को चुन-चुन कर मार देना निश्चित तौर पर मोसाद की ईरान के हर तंत्र में घर कर चुकी उपस्थिति को दर्शाता है।
■ हवाई-मारक क्षमता
इस युद्ध ने ईरान की हवाई-मारक क्षमता को भी नग्न कर दिया है- एक ही दिन में ईरान के आसमानों में इजरायल के मिसाइल्स और विमान बेरोकटोक उड़ान भरते नजर आए जिसने ईरान की कमजोरी को पूर्णतया जाहिर कर दिया।
■ अंतरराष्ट्रीय सहयोग
जहां तक अंतरराष्ट्रीय सहयोग की बात है, तो इस युद्ध में ईरान को किसी भी तरफ से कोई भी सहयोग प्राप्त होता नहीं दिख रहा है जो उसके लिए एक बड़ा झटका माना जा सकता है। उसके मित्र राष्ट्र जिसको उसने अभी-अभी मदद की थी- रूस वह भी मदद देता नहीं देखा चीन सिर्फ बयान तक सीमित रहा और पाकिस्तान ने तो संभवत करीब-करीब विरोधी खेमे में ही खड़ा दिखा।
■ अमेरिका को क्या मिला?
अमेरिका को संभवत: वांछित सफलता न प्राप्त हुई होगी इस युद्ध से, मगर अमेरिका ने अपना दबदबा तो पूरी दुनिया को दिखा ही दिया है और अगर कहें तो कायम भी कर दिया है। अमेरिका ने यह सिद्ध किया कि वह जो चाहता है और जब चाहता है कर सकता है और करता है। साथ ही अमेरिका ने अपने सैनिक शक्ति का प्रदर्शन भी किया और नए बीटू बम वर्षक का सफल परीक्षण भी किया है।
■ इसराइल पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं
इजराइल का लक्ष्य था ईरान के सर्वोच्च नेतृत्व को समाप्त कर परमाणु कार्यक्रम की अवधारणा को ही जड़ से खत्म करना। हालांकि वह अपने लक्ष्य में पूर्णतया सफल नहीं हो पाया परंतु ईरान के परमाणु कार्यक्रम को तकरीबन एक दशक तक पीछे तो अवश्य धकेल दिया है। पूरी दुनिया को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इसराइल सिर्फ अपना युद्ध नहीं लड़ रहा वह इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध पूरे विश्व के लिए युद्ध लड़ रहा है और आप महसूस भी कर रहे होंगे कि उसे तकरीबन तकरीबन पूरी दुनिया से नैतिक सहयोग तो प्राप्त हुआ ही है।
■ चीन कहां है?
इस युद्ध से चीन ने अपने आप को कमोबेश अलग ही रखा है। चीन के राष्ट्रपति ने युद्ध के दौरान मात्र इतना ही कहा कि स्थिति को बिगड़ने से रोका जाना चाहिए। चीन की सबसे बड़ी आवश्यकता है उसकी ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति। ईरान से सबसे ज्यादा ईंधन और बहुत ही कम मूल्य पर चीन खरीदता रहा है, तो इस युद्ध से सबसे बड़ी चिंता चीन की केवल यही रही कि उसकी ऊर्जा आपूर्ति में बाधा न उत्पन्न हो।
■ रूस कहां है?
हालांकि रूस ने मुखर होकर इस युद्ध का विरोध किया, परंतु वह स्वयं यूक्रेन के साथ युद्ध में उलझा रहने के कारण किसी भी प्रकार का सहयोग न कर सका। जबकि यूक्रेन के साथ चल रहे उसके युद्ध में ईरान ने सामरिक रूप से रूस की बहुत मदद की है और हमें लगता है कि रूस को इस बात का मलाल सदैव रहेगा।
■ भारत ने क्या हासिल किया?
इस युद्ध में अमेरिका, इजरायल और ईरान के अलावा यदि कोई चर्चा में रहा है तो वह है भारत। भारत ही इकलौता राष्ट्र है जिसके बारे में अमेरिका, ईरान और इजरायल तीनों राष्ट्रों ने सकारात्मक बयान दिए हैं- इजरायल ने अत्यंत सकारात्मक बयान देते हुए भारत की भूमिका को सराहा है, वहीं अमेरिका ने भारत के प्रति विश्वास जाहिर किया है और इजरायल तो सदैव से ही भारत के प्रति अच्छी समझ रखते हुए सकारात्मक चर्चा ही करता है।
■ आईए अब आते हैं ईरान के सीमावर्ती राष्ट्रों और मुस्लिम उम्माओं पर
इजराइल ने 2000 से ढाई हजार किलोमीटर तक अपने लड़ाकू विमान भेजकर बम गिराए और ईरान की सीमा में घुसने से पहले ईरान के आसपास के देशों के आसमान पर ईंधन भरते हुए इजराइल के विमानों ने ईरान में प्रवेश किया। इसका मतलब यह है कि ईरान को अपने पड़ोसी देशों से किसी प्रकार का सहयोग नहीं मिला। सऊदी अरब, जॉर्डन, और मिस्र जैसे देशों ने अपने मुंह सिल लिए थे और बयानबाजी के अलावा किसी ने कुछ नहीं कहा। परोक्ष रूप से इजराइल का सभी ने सहयोग ही किया है।
■ ईरान के सीमावर्ती राष्ट्रों की भूमिका
ईरान के सीमावर्ती राष्ट्रों की भूमिका इस युद्ध में बहुत महत्वपूर्ण रही है। इन देशों ने इजराइल के विमानों को अपनी हवाई सीमा का उपयोग करने की अनुमति दी, जिससे इजराइल को ईरान पर हमला करने में मदद मिली। यह दर्शाता है कि इन देशों के बीच ईरान के साथ तनाव है और वे इजराइल के साथ अपने संबंधों को मजबूत बनाने के लिए तैयार हैं।
■ मुस्लिम उम्माओं की भूमिका
मुस्लिम उम्माओं की भूमिका भी इस युद्ध में बहुत महत्वपूर्ण रही है। मुस्लिम देशों ने इस युद्ध में अपनी चुप्पी साध ली और इजराइल के खिलाफ कोई ठोस कदम नहीं उठाया। यह दर्शाता है कि मुस्लिम देशों के बीच एकता नहीं है और वे अपने व्यक्तिगत हितों को प्राथमिकता देते हैं।
■ निष्कर्ष
इस युद्ध से मात्र निष्कर्ष निकला है कि ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम से एक दशक पीछे चला गया है। मुस्लिम उम्माओं की जो अवधारणा थी, वह झूठी साबित हुई। इजरायल और अमेरिका दोनों ने पूरी दुनिया में अपना वर्चस्व और दबदबा साबित है, और भारत ने अपनी कूटनीति का लोहा मनवाया है।इस युद्ध से यह भी स्पष्ट हो गया है कि मुस्लिम देशों के बीच एकता की कमी है और वे अपने व्यक्तिगत हितों को प्राथमिकता देते हैं। इसके अलावा, यह युद्ध दर्शाता है कि इजरायल और अमेरिका जैसी शक्तिशाली देशों के सामने छोटे देशों की सीमाएं बहुत कमजोर होती हैं।