क्या स्वार्थ के आगे टिकेगा “मराठी” का मुद्दा ?

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■ मराठी भाषा के मुद्दे पर साथ आए उद्धव-राज ।

श्रीश उपाध्याय/मुंबई वार्ता

आज मुंबई में आयोजित एक जनसभा के दौरान 20 साल बाद उबाठा प्रमुख उद्धव ठाकरे और मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने मंच को साँझा किया। लेकिन आज भी सवाल वहीं है कि स्वार्थ की राजनीति के कारण अलग हुए दोनों भाई “मराठी” के मुद्दे पर कितने दिन साथ टिकेंगे ?

सत्ता की ताकत बड़े बड़ों को दूर कर देती है। वहीं सत्ता का लालच बड़े बड़े दुश्मनों को एक साथ ला खड़ा करती है। आज देश की अर्थिक राजधानी मुंबई में यही देखने मिला। शिवसेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे के नेतृत्व में कभी एक साथ काम कर चुके उद्धव- राज सिर्फ और सिर्फ सत्ता के नशे में एकदूसरे के दुश्मन बने। उस समय बाला साहब के लाख समझाने के बावजूद राज ठाकरे ने शिवसेना से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया। बाला साहब की राह पर चलते हुए मराठी भाषा का मुद्दा उठाया और विधानसभा चुनावों में 13 सीट झटक ली।

मीडिया से बात करते हुए राज ठाकरे ने फिल्मी अंदाज में उद्धव पर कटाक्ष करते हुए कहा था,” आपुन ने एक मारा ,पर सालिड मारा ना।” हालाकि भाजपा के साथ गठबंधन के बावजूद उस समय शिवसेना सत्ता में नहीं आ सकी थी।

वर्ष 2014 में समय पालट गया। शिवसेना-भाजपा सत्ता में आई। मराठी का मुद्दा छोड़कर हिन्दुत्व के मुद्दे पर आने की राज ठाकरे की कोशिश औंधे मुँह गिरी और मनसे 13 से 1 विधायक पर आ गई। मनसे की दुर्गति हुई क्योंकि उसने मुद्दा छोड़ा, वोटों के लालच में हिन्दुत्व को मुद्दा बनाने की कोशिश की जबकि हिन्दुत्व, शिवसेना-भाजपा का जगजाहिर मुद्दा था।

वर्ष 2019 में भाजपा लहर का फायदा उठाकर शिवसेना ने 56 सीटे जीती। सत्ता के लालच में उद्धव ठाकरे ने हिन्दुत्व का मुद्दा छोड़ा, कॉंग्रेस से गठबंधन किया और सत्तासीन हो गए । दो साल गुजरते-गुजरते शिवसेना के 40 से अधिक विधायकों समेत पूरी शिवसेना एकनाथ शिंदे ले उड़े।

एकनाथ शिंदे ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई और मुख्यमंत्री बन गए। उद्धव ठाकरे चिल्लाते रहे कि एकनाथ शिंदे ने गद्दारी की। लेकिन क्या उन्होंने कभी अपने गिरेबान में एक बार भी झाँक कर देखा कि 2019 चुनाव जीतने के लिए उन्होने महाराष्ट्र के हिन्दुओं से गद्दारी नहीं तो क्या किया था ?

उद्धव ने भी सत्ता के लालच में हिन्दुत्व छोड़ा और स्वयं को धर्मनिरपेक्ष साबित करने की आड़ में मुस्लिम वोटों, कॉंग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का सहारा लेकर 2024 के लोकसभा चुनाव में अप्रतिम सफलता हासिल की। हालांकि यह सफलता ज्यादा दिन टिकी नहीं। 2024 के विधानसभा चुनाव में एकनाथ शिंदे ने शिवसेना के 57 विधायकों को जीत दिलाई जबकि उद्धव ठाकरे मात्र 20 विधायक ही जीता पाए।

महाराष्ट्र की जनता ने गठबंधन का 48 सीटों पर बोरिया-बिस्तर बांध दिया. 101 सीटों पर लड़ी कांग्रेस 15 सीटें जीत पाईं। 2019 की तुलना में उसे 29 सीटों का नुकसान हुआ। वोट शेयर भी करीब 4 प्रतिशत खिसक गया। 95 सीटों पर चुनाव लड़ने वाले उसके दूसरे सहयोगी उद्धव ठाकरे की शिवसेना 20 पर सिमट गई। भारत की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले शरद पवार की पार्टी 86 सीटों पर चुनाव लड़ी, लेकिन हाथ 13 सीटें ही आ पाईं।

इन परिणामों से एक बात तो साफ है कि जो भी सत्ता की लालच में मुद्दा छोड़ेगा, जनता को मूर्ख समझने की गलतफहमी पालेगा, जनता समय आने पर उसकी गलतफहमी दूर कर देगी।

इन घटनाओं से एक बात और साफ़ होती है कि सत्ता की लालच में दोनों ठाकरे बंधुओ ने मुद्दा फिर बदला है। मनसे ने फिर हिन्दुत्व छोड़ा और मराठीवाद कोअपनाया , उबाठा ने धर्मनिरपेक्षता छोड़ फिर हिन्दुत्व और मराठी भाषा को मुद्दा बनाया है । इसीलिए एक बड़ा सवाल यह उठता है कि सत्ता की दौड़ में आगे निकलने की चाह कहीं दोबारा ठाकरे बंधुओं के मराठी भाषा के मुद्दे पर भारी तो नहीं पड़ेगी ?

इस बार मराठी भाषा वाद-विवाद के दौरान अक्सर तठस्त की भूमिका लेने वाली कॉंग्रेस भी हिंदी का विरोध करती नजर आई।

आगामी महानगर पालिका चुनाव में अब यह देखना बड़ा ही उत्सुकतापूर्ण होगा कि जनता मुद्दा छोड़ने वालों के साथ है या मुद्दों पर टिके रहने वालों के साथ ?

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