मिलार्ड,अब भरोसा करें भी तो किस पर ?

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डाॅ धीरज फूलमती सिंह/स्तंभकार/मुंबई वार्ता

इस साल 14 मार्च को होली थी,दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर उसी रात आग लग गई, वर्मा साहब घर पर नही थे,परिवार सहित छुट्टियां मना रहे थे। आनन-फानन में फायर ब्रिगेड को बुलाया गया, घर में लगी आग पर काबू पाया गया लेकिन तब से दिल्ली फायर ब्रिगेड पर एक चुटकुला वायरल हो गया है। ” दिल्ली फायर ब्रिगेड वाले जज साहब के घर आग बुझाने गए थे और आग लगा कर आ गए!” मामला यह है कि जज साहब के घर होली की रात लगी आग में एक विशेष कमरे में अध जली नोटो की बोरियां मिली और इस से भी बडी बात कि यह मामला 20 मार्च को सुर्खियों में आया। मतलब पूरे छः दिन तक इस मामले को दबाने की भरपूर कोशिश की गई थी । शायद मुखबिर का मुंह न ढंग से बंद किया गया,ना उसका पेट ही पूरा भरा गया और इसलिए मामला उजागर हो गया ।

शंका के कारण तो बहुत से है। भारतीय न्याय व्यस्था में होली वाले मार्च का महिना एक काला अध्याय बन कर रह गया है। न्याय पाने के लिए एक आम आदमी की आखरी और मजबूत आस सिर्फ और सिर्फ न्यायालय व न्यायाधीश पर होती है। भ्रष्टाचार के घूप अंधेरी गुफा में भटकते हुए एक आम इंसान के लिए न्याय व्यवस्था दूर अंधेरे में जलती हुई उस दीये के समान होती है जो किसी राहगीर को रास्ता दिखाती है,उसे विश्वास दिलाती है कि तू भटका नही है,तू जल्दी ही रौशनी में आ जाएगा,तेरे साथ अन्याय नही होगा…..हम है ना! और जब यही न्याय व्यस्था भ्रष्टाचार में लिप्त हो,जब इसी न्यायालय पर भ्रष्टाचार के इल्जाम लगे तब भ्रष्टाचार के अंधेरे में भटका राहगीर कहां जाये,किस पर विश्वास करे,क्या उसकी आत्मा निराश और असहाय नही हो जाएगी ? उपर से “कोढ में खाज” का काम यह कि तथाकथित भ्रष्टाचार में संलिप्त आरोपी जज वर्मा को सस्पेंड न कर इलाहाबाद हाई कोर्ट तबादला कर दिया जाए तो क्या यह जज महोदय के लिए भ्रष्टाचार का इनाम न हुआ ? आम जम मानस के सामने न्यायालय की क्या छवी बनाई जा रही है ? इस तबादले पर बिना किसी विरोध के केद्र सरकार ने भी अपनी मंजूरी की मुहर लगा दी है! अब इसे क्या समझा जाए ?

एक बार सोचकर देखिए,जज साहब की जगह कोई सामान्य सरकारी मुलाजिम होता तो क्या होता ? पहले तो सरकारी कर्मचारी को सस्पेंड किया जाता, फिर संदेह की स्थिती में भी गिरफ्तार किया जाता, सालों साल केस चलता,परिवार परेशान होता,सडक पर आता,समाज में बदनाम होता और नौकरी जाती सो अलग लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट के जज मामले क्या किया गया ? पहले उन्हे इलाहबाद हाईकोर्ट ट्रांसफर करके इनाम दिया गया,उसके बाद मीडिया, प्रशासन और वकीलों का दबाव पडा तो उन पर जांच बिठाई गई पर इनाम को जस का तस रखा गया! यह बात बिल्कुल सही है कि पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट के जज रहे जस्टिस यशवंत वर्मा के घर से बड़ी मात्रा में जले हुए कैश बरामद होने के बाद न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और जजों की नियुक्ति में कथित पारदर्शिता नहीं होने के मसले की चर्चा फिर से जोर पकड रही है। जजों की नियुक्ति के मौजूदा कोलेजियम सिस्टम पर भी सवाल उठाए जा रहे है।

कई जानकारों ने जजों की नियुक्ति के मौजूदा कोलेजियम सिस्टम को पूरी तरह खत्म करने तक की मांग कर दी है। चौतरफा दबाव बढने और छीछालेदर होने पर इस बीच सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम भी अपनी तरफ से कुछ कदम उठाता दिख रहा है। वह जजों की नियुक्ति से पहले उम्मीदवारों के बारे में जांच-पड़ताल कर इंटरव्यू करने की रणनीति अपना रहा है। पहले यह होता था कि अगर हाईकोर्ट कोलेजियम किसी वकील के नाम की सिफारिश कर देता था, तो सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस (सीजेआई) की अगुआई वाली तीन सदस्यों की कोलेजियम उसे आसानी से मंजूरी दे देती थी। पिछले तीन दशकों में हाईकोर्ट कोलेजियम द्वारा सुझाए गए 85-90 फीसदी नामों को मंजूरी मिली भी है लेकिन अब हालात बदल गए हैं। हाईकोर्ट जज बनना पहले से कहीं ज्यादा मुश्किल हो गया है,अब सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम सिर्फ 50 फीसदी से कम नामों को ही जज बनने के लिए चुन रहा है,ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि अब उम्मीदवारों का इंटरव्यू लिया जा रहा है, इस इंटरव्यू में उनकी योग्यता, सोच और जज बनने की उनकी काबिलियत को परखा जाता है,फिर अब तो उनका इतिहास भी खंगाला जाता है।

पहले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की जांच बहुत साधारण होती थी. वे सिर्फ दो चीजों पर ध्यान देते थे। पहला, वकील ने कितने बड़े और महत्वपूर्ण केस लड़े हैं, और दूसरा, इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) की रिपोर्ट में उनकी छवि कैसी है। आईबी की रिपोर्ट में वकील की वकीलों के समुदाय में क्या प्रतिष्ठा है, यह भी देखा जाता था। उस समय हाईकोर्ट कोलेजियम से आए ज्यादातर नाम मंजूर हो जाते थे सिर्फ 10-15 फीसदी नाम ही खारिज होते थे, जिनकी आईबी रिपोर्ट खराब होती थी या जिनकी कमाई कम होती थी,जिससे लगता था कि उनकी प्रैक्टिस ठीक नहीं है। दिल्ली हाईकोर्ट मामले के बाद अब यह प्रक्रिया सख्त हो गई है। पिछले महीने सीजेआई बने जस्टिस संजीव खन्ना ने जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्य कांत के साथ मिलकर एक नया नियम शुरू किया है।

अब हाईकोर्ट कोलेजियम से आए नामों का व्यक्तिगत इंटरव्यू लिया जाता है,इस इंटरव्यू का मकसद यह समझना है कि उम्मीदवार की कानूनी सोच क्या है और वे जज बनने के लिए कितने उपयुक्त हैं,कितने काबिल है! यह कदम उठाना बहुत जरूरी हो गया था क्योंकि कुछ जजों के अजीब-ओ-गरीब बयानों और फैसलों से विवाद बढ़ रहे थे। कुछ जजों ने ऐसे फैसले दिए जो बहुत चौंकाने वाले थे।जैसे बलात्कार की कोशिश को गलत तरीके से समझाना, इसके अलावा कुछ मामलों में भ्रष्टाचार की शिकायतें भी सामने आई थीं। इन सब समस्याओं को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट को खुद संज्ञान लेते हुए कार्रवाई करनी पड़ी।

भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने व न्यायिक प्रणाली में जनता का विश्वास हमेशा बहाल रखने के लिए न्यायपालिका,सरकार,नागरिकों,समाज और सभी हितधारकों के एक साथ प्रयास की आवश्यकता है। तभी न्यायपालिका भारत में न्याय के संरक्षक के रूप में अपनी भूमिका को सही मायने में पूरा कर सकती है।

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