प्रशांत किशोर (पीके) द्वारा ‘जन सुराज पार्टी’ की स्थापना को सियासी हल्को में कौतूहल और प्रश्नवाचक भाव में देखा जा रहा है। पीके ने अपनी नई पार्टी का ऐलान बापू की जयंती 2 अक्टूबर को किया। उन्होंने कहा कि वो सत्ता में आए तो राज्य में आठ साल से जारी शराबबंदी को एक घंटे में खत्म कर देंगे। पीके के मुताबिक शराबबंदी से बिहार को कोई लाभ नहीं हुआ, उल्टे हर साल 20 हजार करोड़ के राजस्व हानि की चपत जरूर लगी। उन्होंने कहा कि वे शराब से मिलने वाले टैक्स को बच्चों की शिक्षा पर खर्च करेंगे।
उन्होंने कहा है कि हम ‘ह्यूमन फर्स्ट’ को तवज्जो देते हुए ऐसा बिहार बनाएंगे, जहां पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात से लोग रोजगार मांगने बिहार आएंगे।
प्रशांत किशोर बिहार के रोहतास जिले के कोनार गांव में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे हैं। इंजीनियरिंग में ग्रेजुएट होने के बाद पीके ने संयुक्त राष्ट्र संघ में आठ साल तक सेवाएं दीं। उसके बाद भारत लौटकर सहभागिता में ‘सिटीजन फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस’ (सीएजी) नाम की कंपनी बनाई। कुछ समय बाद ही उन्होंने चुनावी रणनीति बनाने वाली नई कंपनी आई-पैक की स्थापना की और मोदी को गुजरात में तीसरी बार सरकार बनाने में मदद की।
2014 के लोकसभा चुनाव में वे भाजपा के चुनावी रणनीतिकार रहे। इस चुनाव में देश में पहली बार भाजपा केंद्र में अपने दम पर सत्ता में आई। इसके बाद पीके ने कांग्रेस, जद( यू), वायएसआर कांग्रेस, डीएमके, टीएमसी, आप आदि कई पार्टियों के लिए विधानसभा चुनावों में रणनीतिकार की भूमिका निभाई और सम्बन्धित दलों को सत्ता दिलाने में मदद की। अब पीके चुनावी रणनीतिकार से खुद राजनेता बनने की भूमिका में हैं।
पीके ने अपनी पार्टी का अध्यक्ष एक दलित और रिटायर्ड आईएफएस अफसर मनोज भारती को बनाया है। वे कितने दलित या महादलित वोट लाएंगे, यह तो समय ही बताएगा। लेकिन शराबबंदी हटाने पर चर्चा खूब है। शराबबंदी को खत्म करना नैतिक रूप से सही न भी हो, लेकिन आर्थिक रूप से एक विकल्प जरूर है। शराबबंदी कागजी स्तर पर ही ज्यादा है। वर्तमान में सत्ता में भागीदार बीजेपी ही आरोप लगाती रही है कि राज्य में शराबबंदी के चलते अवैध शराब की 25 हजार करोड़ की समांतर अर्थव्यवस्था पनप गई है। दूसरी तरफ अवैध और जहरीली शराब पीने के कारण हर साल मौतें हो रही हैं। राज्य सरकार के आंकड़े हैं कि आठ साल में 266 लोगों ने जहरीली शराब पीकर जानें गंवाई तो अवैध शराब रखने के मामलों में 6 लाख लोगों पर मुकदमे दर्ज हैं और इनमें से भी करीब सवा लाख लोग जेलों में बंद हैं।
ऐसे में पीके का यह तर्क किसी हद तक जायज है कि राज्य सरकार शराब बिक्री से हर साल करीब 20 हजार करोड़ की आय प्राप्त कर उसे शिक्षा व विकास के अन्य कामों में खर्च करे। वैसे भी राजस्व आय कैसे बढ़े यह बिहार की बड़ी समस्या है। क्योंकि राज्य अभी भी कृषि प्रधान ही है। इसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि करीब 12 करोड़ की आबादी वाले बिहार का वार्षिक बजट 2.79 लाख करोड़ रू. का ही है, जबकि 8 करोड़ की जनसंख्या वाले मप्र का वार्षिक बजट 3.65 लाख करोड़ रू. का है।
पीके अपने आदर्शों में उन महात्मा गांधी को अव्वल मानते हैं, जिनके मिशन में नशा मुक्ति अहम रही है। इसलिए थोड़ा विरोधाभास तो है। लेकिन अब शराब पीने देनेवाली
पार्टी बिहार में क्या कमाल करेगी? क्या वो अगले विधानसभा चुनाव में निर्णायक भूमिका में आ सकने की स्थिति में है? पार्टी गठन के पूर्व पीके ने बिहार में साढ़े 3 हजार किमी की पदयात्रा की। माना जा सकता है कि वो बिहार की तासीर समझते हैं। लेकिन राज्य में अगड़े, पिछड़े, अति पिछड़े, दलित, महादलित आदि जातियों के वोटों के पार्टियों में पहले से जारी बंटवारे और लामबंदी के चक्रव्यूह को पीके कैसे भेद पाएंगे, यह बड़ा सवाल है। खासकर तब कि बिहार में अगड़ी जातियां राजनीतिक दृष्टि से हाशिए पर जा चुकी हैं और पीके खुद ब्राह्मण हैं। पीके अपने भाषणों में यूं तो सभी पार्टियों के खिलाफ बोलते हैं, लेकिन कई राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि पीके की पार्टी का सॉफ्ट कार्नर भाजपा के प्रति है। कहीं ऐसा तो नहीं कि राज्य जद (यू), लोजपा, हम आदि पार्टियों को कमजोर करने के लिए पीके को उतारा गया है।
हालांकि इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। पीके जहां गांधीवाद और अंबेडकरवाद के समन्वय का नया राजनीतिक कार्ड खेल रहे हैं, वहीं मदिरा के भरोसे राज्य के आर्थिक, सामाजिक विकास का सपना भी पाले हुए हैं। राजनीतिक रूप से यह कितना कामयाब होगा, यह देखने की बात है, खासकर उस बिहार में जहां हर शै जाति से शुरू होकर जाति पर ही खत्म होती है।